§11ـ हमह ऊस्त

ख़याबान-ए सादी में
रूसी किताबों की दुककान पर हम खड़े थे
मुझे रूस के चीदा संअत-गरों के
नए कार-नामों की इक उम्र से तिश्नगी थी!
मुझे रूसियों के "सियासी हमह ऊस्त" से कोई रग़्बत नहीं है
मगर ज़र्रे ज़र्रे में
इंसाँ के जौहर की ताबिंदगी देखने की तमन्ना हमेशा रही है!
और उस शाम तो मर्सिदा की अरूसी थी,
उस शौख़, दीवानी लड़की की ख़ातिर
मुझे एक नाज़ुक-सी सौग़ात की जुस्त्जू थी—

वो मेरा नया दोस्त ख़ालिद
ज़रा दूर, तख़्ते के पीछे खड़ी
इक तनू-मंद लेकिन फ़ुसूँ-कार,
क़फ़क़ाज़ की रहने-वाली हसीना से शीर‐ओ‐शकर था!
ये भूका मुसाफ़िर,
जो दस्ते के साथ
एक ख़ीमे में, इक दूर उफ़्तादा सहरा में
मुद््दत से उज़्लत-गुज़ीं था,
बड़ी इल्तिजाओं से
इस हूर-ए क़फ़क़ाज़ से कह रहा था:
"नजाने कहाँ से मिला है
तुम्हारी ज़बाँ को ये शहद
और लहजे को मस्ती!
मैं कैसे बताऊँ
मैं किस दर्जा दिलदादा हूँ रूसियों का
मुझे इश्तिराकी तमद््दुन से कितनी मुहब्बत है,
कैसे बताऊँ!
ये मुम्किन है तुम मुझ को रूसी सिका दो?
कि रूसी अदीबों की सर-चश्मा-गाहों को मैं देखना चाहता हूँ!"

वो पर्वर्दा-ए अश्वा-बाज़ी
कनखयों से यूँ देखती थी
कि जैसे वो उन सर-निगूँ आर्ज़ुओं को पहचानती हो,
जो करती हैं अक्सर यूँ-ही रू-शिनासी
कभी दोस्ती की तमन्ना,
कभी इल्म की प्यास बन-कर!
वो खोल्हे हिलाती थी, हंसती थी
इक सोची समझी हिसाबी लगावट से,
जैसे वो उन ख़ुफ़्या सर-चश्मा-गाहों के हर राज़ को जानती हो,
वो तख़्ते के पीछे खड़ी, क़हक़हे मारती, लोटती थी!

कहा मैं ने ख़ालिद से:
"बहरूपिए!
इस विलायत में ज़र्ब-ए मसल है
"कि ओंटों की सौदा-गरी की लगन हो
तो घर उन के क़ाबिल बनाओ—,
और इस शहर में यूँ तो उस्तानियाँ अन-गनित हैं
मगर इस की उज्रत भला तुम कहाँ दे सकोगे!"
वो फिर मुज़्तरब हो-के, बे-इख़्तियारी से हंसने लगी थी!
वो बोली:
"ये सच है
कि उज्रत तो इक शाही भर कम न होगी,
मगर फ़ौजियों का भरोसा ही क्या है,
भला तुम कहाँ बाज़ आओगे
आख़िर ज़बाँ सीकने के बहाने
ख़ियानत करोगे!"
वो हंसती हुई
इक नए मश्तरी की तरफ़ मुल्तफ़त हो गई थी!

तो ख़ालिद ने देखा
कि रूमान तो ख़ाक में मिल चुका है—
उसे खेंच-कर जब मैं बाज़ार में ला रहा था,
लगातार करने लगा वो मक़ूलों में बातें:
"ज़बाँ सीकनी हो तो औरत से सीखो!
जहाँ-भर में रूसी अदब का नहीं कोई सानी!
वो क़फ़क़ाज़ की हूर, मज़दूर औरत!
जो दुनिया के मज़दूर सब एक हो जाएँ
आग़ाज़ हो इक नया दौरा-ए शादमानी!"

मिरे दोस्तों में बहुत इश्तिराकी हैं,
जो हर मुहब्बत में मायूस हो-कर,
यूँ-ही इक नए दौरा-ए शादमानी की हसरत में
करते हैं दिलजूई इक दूसरे की,
और अब ऐसी बातों पे मैं
ज़ेर-ए लब भी कभी मुस्कराता नहीं हूँ!

और उस शाम जश्न-ए अरूसी में
हुस्न‐ओ‐मए‐ओ‐रक़्स‐ओ‐नग़्मा के तूफ़ान बहते रहे थे,
फ़रंगी शराबें तो अंक़ा थीं
लेकिन मए-ए नाब-ए क़ज़वीन‐ओ‐ख़ुल्लार-ए शीराज़ के दौर-ए पैहम से,
रंगीं लबासों से,
ख़ुशबू की बे-बाक लहरों से,
बे-साख़्ता क़हक़हों, हम्हमों से,
मज़ामीर के ज़ेर‐ओ‐बम से,
वो हंगामा बरपा था,
महसूस होता था
तहरान की आख़िरी शब यही है!
अचानक कहा मर्सिदा ने:
"तुम्हारा वो साथी कहाँ है?
अभी एक सोफ़े पे देखा था मैं ने
उसे सर बज़ानू!"

तो हम कुछ परेशान से हो गए
और कम्रा ब कम्रा उसे ढूंडने मिल-के निकले!
लो इक गोशा-ए नीम-रौशन में
वो इश्तिराकी ज़मीं पर पड़ा था
उसे हम हिलाया किये और झंझोड़ा किये
वो तो साकित था, जामिद था!
रूसी अदीबों की सर-चश्मा-गाहों की उस को ख़बर हो गई थी?

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