§12ـ तेल के सौदागर

बुख़ारा समर्क़ंद इक ख़ाल-ए हिंदू के बदले!
बजा है, बुख़ारा समर्क़ंद बाक़ी कहाँ हैं?
बुख़ारा समर्क़ंद नींदों में मद-होश,
इक नीलगूँ ख़ामुशी के हिजाबों में मस्तूर
और रहरौओं के लिए उन के दर बंद,
सोई हुई मह-जबीनों की पलकों के मानिंद,
रूसी "हमह ऊस्त" के ताज़ियानों से माज़ूर
दो मह-जबीनें!

बुख़ारा समर्क़ंद को भूल जाओ
अब अपने दरख़्शंदा शहरों की
तहरान‐ओ‐मश्हद के सक़्फ़‐ओ‐दर‐ओ‐बाम की फ़िक्र कर लो,
तुम अपने नए दौर-ए होश‐ओ‐अमल के दिल-आवेज़ चस्मों को
अपनी नई आर्ज़ुओं के उन ख़ूब-सूरत किनायों को
महफ़ूज़ कर लो!

उन ऊंचे दरख़्शंदा शहरों की
कोता फ़सीलों को मज़बूत कर लो
हर इक बुर्ज‐ओ‐बार‐ओ‐पर अपने निगहबाँ चड़ा दो,
घरों में हवा के सिवा,
सब सदाओं की शमें बुझा दो!
कि बाहर फ़सीलों के नीचे
कई दिन से रहज़न हैं ख़ीमा-फ़िगन,
तेल के बूड़े सौदागरों के लबादे पहन-कर,
वो कल रात या आज की रात की तीरगी में,
चले आएंगे बन-के मेहमाँ
तुम्हारे घरों में,
वो दावत की शब जाम‐ओ‐मीना लुंढाएंगे
नाचेंगे, गाएंगे,
बे-साख़्ता क़हक़हों हम्हमों से
वो गर्माएंगे ख़ून-ए महफ़िल!

मगर पौ फुटेगी
तो पलकों से खो दोगे ख़ुद अपने मुर्दों की क़बरें
बिसात-ए ज़ियाफ़त की ख़ाकिस्तर-ए सोख़्ता के किनारे
बहाओगे आंसू!

बहाए हैं हम ने भी आंसू!
—गो अब ख़ाल-ए हिंदू की अर्ज़िश नहीं है
इज़ार-ए जहाँ पर वो रिस्ता हुआ गहरा नासूर
अफ़्रंग की आज़-ए ख़ूँ-ख़्वार से बन चुका है—
बहाए हैं हम ने भी आंसू,
हमारी निगाहों ने देखे हैं
सैयाल सायों के मानिंद घुलते हुए शहर
गिरते हुए बाम‐ओ‐दर
और मीनार‐ओ‐गुंबद,
मगर वक़्त मेहराब है
और दुश्मन अब उस की ख़मीदा कमर से गुज़रता हुआ
उस के निचले उफ़क़ पर लड़कता चला जा रहा है!
हमारे बरहना‐ओ‐काहीदा जिस्मों ने
वो क़ैद‐ओ‐बंद और वो ताज़ियाने सहे हैं
कि उन से हमारा सितमगर
ख़ुद अपने अलाओ में जलने लगा है!

मिरे हाथ में हाथ दे दो!
मिरे हाथ में हाथ दे दो!
कि देखी हैं मैं ने
हिमाला‐ओ‐अल्वंद की चोटियों पर अना की शुआें,
उंहीं से वो ख़ुरशीद फूटेगा आख़िर
बुख़ारा समर्क़ंद भी सालहासाल से
जिस की हसरत के दरयूज़ा-गर हैं!

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