§15ـ नमरूद की ख़ुदाई

ये क़ुद्सियों की ज़मीं
जहाँ फ़ल्सफ़ी ने देखा था, अपने ख़्वाब-ए सहर-गही में,
हवा-ए ताज़ा‐ओ‐किश्त-ए शादाब‐ओ‐चश्मा-ए जाँ-फ़िरोज़ की आर्ज़ू का पर्तव!
यिहीं मुसाफ़िर पहुंच के अब सोचने लगा है:
"वो ख़्वाब काबूस तो नहीं था?
—वो ख़्वाब काबूस तो नहीं था?

ऐ फ़ल्सफ़ा-गो,
कहाँ वो रोया-ए आस्मानी?
कहाँ ये नमरूद की ख़ुदाई!
तू जाल बुनता रहा है, जिन के शिकस्ता तारों से अपने मौहूम फ़ल्सफ़े के
हम उस यक़ीं से, हम उस अमल से, हम उस मुहब्बत से,
आज मायूस हो चुके हैं!

कोई ये किस से कहे कि आख़िर
गवाह किस अद्ल-ए बे-बहा के थे अहद-ए तातार के ख़राबे?
अजम, वो मर्ज़-ए तिलिस्म‐ओ‐रंग‐ओ‐ख़याल‐ओ‐नग़्मा
अरब, वो इक़्लीम-ए शीर‐ओ‐शहद‐ओ‐शराब‐ओ‐ख़ुर्मा
फ़क़त नवा-संज थे दर‐ओ‐बाम के ज़ियाँ के
जो उन पे गुज़री थी
उस से बद-तर दिनों के हम सैद-ए ना-तवाँ हैं!

कोई ये किस से कहे:
दर‐ओ‐बाम,
आहन‐ओ‐चोब‐ओ‐संग‐ओ‐सीमाँ के
हुस्न-ए पैवंद का फ़ुसूँ थे
बिखर गया वो फ़ुसूँ तो क्या ग़म?
और ऐसे पैवंद से उमीद-ए वफ़ा किसे थी?

शिकस्त-ए मीना‐ओ‐जाम बर-हक़,
शिकस्त-ए रंग-ए इज़ार-ए महबूब भी गवारा
मगर—यहाँ तो खंडर दिलों के,
(—ये नौ-ए इंसाँ की
कह-कशाँ से बुलंद‐ओ‐बर-तर तलब के उज्ड़े हुए मदाइन—)
शिकस्त-ए आहंग-ए हर्फ़‐ओ‐मानी के नौहा-गर हैं!

मैं आने-वाले दिनों की दहशत से कांपता हूँ
मिरी निगाहें ये देखती हैं
कि हर्फ़‐ओ‐मानी के रब्त का
ख़्वाब-ए लज़्ज़त-आगीं बिखर चुका है,
कि रास्ते नीम-होश्मंदों से,
नींद में राह-पो गदाओं से
"सूफ़ियों" से भरे पड़े हैं
हयात ख़ाली है आर्ज़ू से
हमारी तहज़ीब, कुहना बीमार जाँ बलब है!

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§16. वो हर्फ़-ए तंहा (जिसे तमन्ना-ए वस्ल-ए माना) arrow_right