§21ـ ज़माना ख़ुदा है

"ज़माना ख़ुदा है, इसे तुम बुरा मत कहो"
मगर तुम नहीं देखते—ज़माना फ़क़त रेस्मान-ए ख़याल
सबुक-माया, नाज़ुक, तवील
जुदाई की अर्ज़ां सबील!

वो सुबहें जो लाखों बरस पेशतर थीं,
वो शामें जो लाखों बरस बाद होंगी,
उंहें तुम नहीं देखते, देख सकते नहीं
कि मौजूद हैं, अब भी, मौजूद हैं वो कहीं,
मगर ये निगाहों के आगे जो रससी तनी है
इसे देख सकते हो, और देखते हो
कि ये वो अदम है
जिसे हस्त होने में मुद््दत लगेगी
सितारों के लम्हे, सितारों के साल!

मिरे सहन में एक कमसिन बनफ़शे का पौदा है
तययारा कोई कभी उस के सर पर से गुज़रे
तो वो मुस्कराता है और लहलहाता है
गोया वो तययारा, उस की मुहब्बत में
अहद-ए वफ़ा के किसी जब्र-ए ताक़त-रुबा ही से गुज़रा!
वो ख़ूश एतिमादी से कहता है:
"लो देखो, कैसे इसी एक रससी के दोनों किनारों
से हम तुम बंधे हैं!
ये रससी न हो तो कहाँ हम में तुम में
हो पैदा ये राह-ए विसाल?"
मगर हिज्र के उन वसीलों को वो देख सकता नहीं
जो सरासर अज़ल से अबद तक तने हैं!
जहाँ ये ज़माना—हनूज़-ए ज़माना
फ़क़त इक गिरह है!

arrow_left §20. रेग-ए दीरूज़

§22. अफ़्साना-ए शहर arrow_right