§26ـ हसन कूज़ा-गर

जहाँ-ज़ाद, नीचे गली में तिरे दर के आगे
ये मैं सोख़्ता-सर हसन कूज़ा-गर हूँ!
तुझे सुब्ह बाज़ार में बूड़े अततार यूसिफ़
की दुककान पर मैं ने देखा
तो तेरी निगाहों में वो ताबनाकी
थी मैं जिस की हसरत में नौ साल दीवाना फिरता रहा हूँ
जहाँ-ज़ाद, नौ साल दीवाना फिरता रहा हूँ!
ये वो दौर था जिस में मैं ने
कभी अपने रंजूर कूज़ों की जानिब
पलट-कर न देखा—
वो कूज़े मिरे दस्त-ए चाबुक के पुतले
गिल‐ओ‐रंग‐ओ‐रौग़न की मख़लूक़-ए बे-जाँ
वो सर-गोशियों में ये कहते:
"हसन कूज़ा-गर अब कहाँ है?
वो हम से, ख़ुद अपने अमल से,
ख़ुदावंद बन-कर ख़ुदाओं के मानिंद है रू-ए गर्दां!"
जहाँ-ज़ाद नौ साल का दौर यूँ मुझ पे गुज़रा
कि जैसे किसी शहर-ए मदफ़ून पर वक़्त गुज़रे;
तग़ारों में मिटटी
कभी जिस की ख़ुश-बू से वा-रफ़्ता होता था में
संग-बस्ता पड़ी थी
सुराही‐ओ‐मीना‐ओ‐जाम‐ओ‐सबू और फ़ानूस‐ओ‐गुलदाँ
मिरी हेच-माया मीशत के, इज़्हार-ए फ़न के सहारे
शिकस्ता पड़े थे
मैं ख़ुद, मैं हसन कूज़ा-गर पा ब गिल, ख़ाक बर सर, बरहना,
सर-ए "चाक" झ़ूलीदा मू, सर बज़ानू,
किसी ग़मज़दा देवता की तरह वाहिमा के
गिल‐ओ‐ला से ख़्वाबों के सैयाल कूज़े बनाता रहा था—
जहाँ-ज़ाद, नौ साल पहले
तू ना-दाँ थी लेकिन तुझे ये ख़बर थी
कि मैं ने, हसन कूज़ा-गर ने
तिरी क़ाफ़ की सी उफ़क़-ताब आंखों
में देखी है वो ताबनाकी कि जिस से मिरे जिस्म‐ओ‐जाँ, अब्र‐ओ‐महताब का
रहगुज़र बन गए थे
जहाँ-ज़ाद बग़दाद की ख़्वाब गूँ रात,
वो रोद-ए दज्ला का साहिल,
वो कशती, वो मल्लाह की बंद आंखें,
किसी ख़स्ता-जाँ, रंज्बर, कूज़ा-गर के लिए
एक ही रात वो कहरुबा थी
कि जिस से अभी तक है पैवस्त उस का वुजूद—
उस की जाँ, उस का पैकर
मगर एक ही रात का ज़ौक़ दरया की वो लहर निकला
हसन कूज़ा-गर जिस में डूबा तो उभ्रा नहीं है!

जहाँ-ज़ाद, उस दौर में रोज़, हर रोज़
वो सोख़्ता-बख़्त आ-कर
मुझे देखती चाक पर पा ब-गिल, सर बज़ानू,
तो शानों से मुझ को हिलाती—
(वही चाक जो सालहासाल जीने का तंहा सहारा रहा था!)
वो शानों से मुझ को हिलाती:
"हसन कूज़ा-गर होश में आ
हसन अपने वीरान घर पर नज़र कर
ये बचचों के तन्नूर क्योंकर भरेंगे?
हसन, ऐ मुहब्बत के मारे
मुहब्बत अमीरों की बाज़ी,
हसन, अपने दीवार‐ओ‐दर पर नज़र कर"
मिरे कान में ये नवा-ए हज़ीं यूँ थी जैसे
किसी डूबते शख़्स को ज़ेर-ए गिर्दाब कोई पुकारे!
वो अश्कों के अंबार फूलों के अंबार थे हाँ
मगर मैं हसन कूज़ा-गर शहर-ए औहाम के उन
ख़राबों का मजज़ूब था जिन
में कोई सदा कोई जुंबिश
किसी मुर्ग़-ए पर्रां का साया
किसी ज़िंदगी का निशाँ तक नहीं था!

जहाँ-ज़ाद, में आज तेरी गली में
यहाँ रात की सर्द-गूँ तीरगी में
तिरे दर के आगे खड़ा हूँ
सर‐ओ‐मू परेशाँ
दरीचे से वो क़ाफ़ की सी तिलिस्मी निगाहें
मुझे आज फिर झांकती हैं
ज़माना, जहाँ-ज़ाद वो चाक है जिस पे मीना‐ओ‐जाम‐ओ‐सबू
और फ़ानूस‐ओ‐गुलदाँ
के मानिंद बनते बिगड़ते हैं इंसाँ
मैं इंसाँ हूँ लेकिन
ये नौ साल जो ग़म के क़ालिब में गुज़रे!
हसन कूज़ा-गर आज इक तोदा-ए ख़ाक है जिस
में नम का असर तक नहीं है
जहाँ-ज़ाद बाज़ार में सुब्ह अततार यूसिफ़
की दुककान पर तेरी आंखें
फिर इक बार कुछ कह गई हैं
इन आंखों की ताबिंदा शोख़ी
से उट्ठी है फिर तोदा-ए ख़ाक में नम की हलकी सी लर्ज़िश
यही शायद इस ख़ाक को गिल बना दे!

तमन्ना की वुस्अत की किस को ख़बर है, जहाँ-ज़ाद लेकिन
तू चाहे तो बन जाऊँ में फिर
वही कूज़ा-गर जिस के कूज़े
थे हर काख़‐ओ‐कू और हर शहर‐ओ‐क़र्या की नाज़िश
थे जिन से अमीर‐ओ‐गदा के मुसाकिन दरख़शाँ
तमन्ना की वुस्अत की किस को ख़बर है
जहाँ-ज़ाद लेकिन
तू चाहे तो मैं फिर पलट जाऊँ उन अपने महजूर कूज़ों की जानिब
गिल‐ओ‐ला के सूखे तग़ारों की जानिब
मीशत के, इज़्हार-ए फ़न के सहारों की जानिब
कि मैं उस गिल‐ओ‐ला से, उस रंग‐ओ‐रौग़न
से फिर वो शरारे निकालूँ कि जिन से
दिलों के ख़राबे हों रोशन!

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