§28ـ हसन कूज़ा-गर ३

जहान-ज़ाद,
वो हलब की कारवां-सरा का हौज़, रात वो सुकूत
जिस में एक दूसरे से हम-किनार तैरते रहे
मुहीत जिस तरह हो दाइरे के गिर्द हल्क़ा-ज़न
तमाम रात तैरते रहे थे हम
हम एक दूसरे के जिस्म‐ओ‐जाँ से लग-के
तैरते रहे थे एक शाद-काम ख़ौफ़ से
कि जैसे पानी आंसुओं में तैरता रहे
हम एक दूसरे से मुत्मइन ज़वाल-ए उम्र के ख़िलाफ़
तैरते रहे
तू कह उठी: "हसन यहाँ भी खेंच लाई
जाँ की तिश्नगी तुझे!"
(लो अपनी जाँ की तिश्नगी को याद कर रहा था मैं
कि मेरा हल्क़ आंसुओं की बे-बहा सख़ावतों
से शाद-काम हो गया!)
मगर ये वहम दिल में तैरने लगा कि हो न हो
मिरा बदन कहीं हलब के हौज़ ही में रह गया—
नहीं, मुझे दूई का वाहिमा नहीं
कि अब भी रब्त-ए जिस्म‐ओ‐जाँ का एतबार है मुझे
यही वो एतबार था
कि जिस ने मुझ को आप में समो दिया—
मैं सब से पहले "आप" हूँ
अगर हमीं हों—तू हो और मैं हूँ—फिर भी मैं
हर एक शै से पहले आप हूँ!
अगर मैं ज़िंदा हूँ तो कैसे "आप" से दग़ा करूँ?
कि तेरी जैसी औरतें, जहान-ज़ाद,
ऐसी उल्झनें हैं
जिन को आज तक कोई नहीं "सुलझ" सका
जो मैं कहूँ कि मैं "सुलझ" सका तो सर्बसर
फ़रेब अपने आप से!
कि औरतों की साख़्त है वो तंज़ अपने आप पर
जवाब जिस का हम नहीं—

(लबीब कौन है? तमाम रात जिस का ज़िक्र
तेरे लब पे था—
वो कौन तेरे गेसुओं को खेंचता रहा
लबों को नौचता रहा
जो मैं कभी न कर सका
नहीं ये सच है—मैं हूँ या लबीब हो
रक़ीब हो तो किस लिये तिरी ख़ुद-आगही की बे-रिया निशात-ए नाब का
जो सद नवा‐ओ‐यक नवा ख़िराम-ए सुब्ह की तरह
लबीब हर नवा-ए साज़-गार की नफ़ी सही!)
मगर हमारा राब्ता विसाल-ए आब‐ओ‐गिल नहीं, न था कभी
वुजूद-ए आदमी से आब‐ओ‐गिल सदा बिरूँ रहे
न हर विसाल-ए आब‐ओ‐गिल से कोई जाम या सबू ही बन सका
जो इन का एक वाहिमा ही बन सके तो बन सके!

जहान-ज़ाद,
एक तू और एक वो और एक मैं
ये तीन ज़ाविये किसी मुसल्लस-ए क़दीम के
हमेशा घूमते रहे
कि जैसे मेरा चाक घूमता रहा
मगर न अपने आप का कोई सुराग़ पा सके—
मुसल्लस-ए क़दीम को मैं तोड़ दूँ, जो तू कहे, मगर नहीं
जो सिहर मुझ पे चाक का वही है इस मुसल्लस-ए क़दीम का
निगाहें मेरे चाक की जो मुझ को देखती हैं
घूमते हुए
सबू‐ओ‐जाम पर तिरा बदन, तिरा ही रंग, तेरी नाज़ुकी
बरस पड़ी
वो कीमिया-गरी तिरे जमाल की बरस पड़ी
मैं सैल-ए नूर-ए अंदरूँ से धुल गया!
मिरे दिरूँ की ख़ल्क़ यूँ गली गली निकल पड़ी
कि जैसे सुब्ह की अज़ाँ सुनाई दी!
तमाम कूज़े बनते बनते "तू" ही बन-के रह गए
नशात इस विसाल-ए रह-गुज़र की ना-गहाँ मुझे निगल गई—
यही पयाला‐ओ‐सराही‐ओ‐सबू का मर्हला है वो
कि जब ख़मीर-ए आब‐ओ‐गिल से वो जुदा हुए
तो उन को सिम्त-ए राह-ए नौ का कामरानियाँ मिलें—
(मैं इक ग़रीब कूज़ा-गर
ये इंतिहा-ए मारिफ़त
ये हर पयाला‐ओ‐सराही‐ओ‐सबू की इंतिहा-ए मारिफ़त
मुझे हो इस की क्या ख़बर?)

जहान-ज़ाद,
इंतिज़ार आज भी मुझे है क्यों वही मगर
जो नौ-बरस के दौर-ए ना-सज़ा में था?
अब इंतिज़ार आंसुओं के दज्ला का
न गुमरही की रात का
(शब-ए गुनह की लज़्ज़तों का इतना ज़िक्र कर चुका
वो ख़ुद गुनाह बन गईं!)
हलब की कारवां-सरा के हौज़ का, न मौत का
न अपनी इस शिकस्त-ख़ुर्दा ज़ात का
इक इंतिज़ार-ए बे-ज़माँ का तार है बंधा हुआ!
कभी जो चंद सानिये ज़मान-ए बे-ज़माँ में आ-के रुक गए
तो वक़्त का ये बार मेरे सर से भी उतर गया
तमाम रफ़्ता‐ओ‐गुज़श्ता सूरतों, तमाम हादिसों
के सुस्त क़ाफ़िले
मिरे दिरूँ में जाग उठे
मिरे दिरूँ में इक जहान-ए बाज़-याफ़्ता की रेल-पेल जाग उठी
बिहिश्त जैसे जाग उठे ख़ुदा के ला-शुूर में!
मैं जाग उठा ग़नूदगी की रेत पर पड़ा हुआ
ग़नूदगी की रेत पर पड़े हुए वो कूज़े जो
—मिरे वुजूद से बिरूँ—
तमाम रेज़ा रेज़ा हो-के रह गए थे
मेरे अपने आप से फ़िराक़ में,
वो फिर से एक कुल बने (किसी नवा-ए साज़-गार की तरह)
वो फिर से एक रक़्स-ए बे-ज़माँ बने
वो रोयत-ए अज़ल बने!

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