§6ـ मुकाफ़ात

रही है हज़्रत-ए यज़दाँ से दोस्ती मेरी
रहा है ज़ुहद से याराना उस्तुवार मिरा
गुज़र गई है तक़द््दुस में ज़िंदगी मेरी
दिल अह्रिमन से रहा है सतेज़ा-कार मिरा
किसी पे रूह नुमायाँ न हो सकी मेरी
रहा है अपनी उमंगों पे इख़्तियार मिरा

दबाए रक्खा है सीने में अपनी आहों को
वहीं दिया है शब‐ओ‐रोज़ पेच‐ओ‐ताब उंहें
ज़बान-ए शौक़ बनाया नहीं निगाहों को
किया नहीं कभी वहशत में बे-नक़ाब उंहें
ख़याल ही में किया पर्वरिश गुनाहों को
कभी किया न जवानी से बहरा-याब उंहें

ये मिल रही है मिरे ज़ब्त की सज़ा मुझ को
कि एक ज़हर से लबरेज़ है शबाब मिरा
अज़ीयतों से भरी है हर एक बेदारी
महीब‐ओ‐रूह-सिताँ है हर एक ख़्वाब मिरा
उलझ रही हैं नवाएँ मिरे सरोदों की
फ़शार-ए ज़ब्त से बे-ताब है रुबाब मिरा
मगर ये ज़ब्त मिरे क़हक़हों का दुश्मन था
पयाम-ए मर्ग-ए जवानी था इज्तिनाब मिरा

लो आ गई हैं वो बन-कर मुहीब तस्वीरें
वो आर्ज़ुएँ कि जिन का किया था ख़ूँ मैं ने
लो आ गए हैं वही पै-रवान-ए अह्रीमन
किया था जिन को सियासत से सर-निगूँ मैं ने
कभी न जान पे देखा था ये अज़ाब-ए अलीम
कभी नहीं ऐ मिरे बख़्त-ए वाझ़-गूँ मैं ने
मगर ये जितनी अज़ीयत भी दें मुझे कम है
किया है रूह को अपनी बहुत ज़बूँ मैं ने
उसे न होने दिया मैं ने हम-नवा-ए शबाब
न उस पे चलने दिया शौक़ का फ़ुसूँ मैं ने
ऐ काश छुप-के कहीं इक गुनाह कर लेता
हलावतों से जवानी को अपनी भर लेता
गुनाह एक भी अब तक किया न क्यों मैं ने?

arrow_left §5. गुनाह और मुहब्बत

§7. हुज़्न-ए इंसान (अफ़्लातूनी इश्क़ पर एक तंज़) arrow_right