§7ـ हुज़्न-ए इंसान (अफ़्लातूनी इश्क़ पर एक तंज़)

जिस्म और रूह में आहंग नहीं,
लज़्ज़त-अंदोज़-ए दिल-आवेज़ी-ए मौहूम है तू
ख़स्ता-ए कशमकश-ए फ़िक्र‐ओ‐अमल!
तुझ को है हसरत-ए इज़्हार-ए शबाब
और इज़्हार से माज़ूर भी है
जिस्म नेकी के ख़यालात से मफ़रूर भी है
इस क़दर सादा‐ओ‐मासूम है तू
फिर भी नेकी ही किये जाती है
कि दिल‐ओ‐जिस्म के आहंग से महरूम है तू

जिस्म है रूह की अज़्मत के लिये ज़ीना-ए नूर
मंबा-ए कैफ़‐ओ‐सुरूर!
ना-रसा आज भी है शौक़-ए परस्तार-ए जमाल
और इंसाँ है कि है जादा-कश-ए राह-ए तवील
(रूह-ए यूनाँ पे सलाम!)
इक ज़िमिस्ताँ की हसीं रात का हंगाम-ए तपाक
उस की लज़्ज़ात से आगाह है कौन?
इश्क़ है तेरे लिये नग़्मा-ए ख़ाम
कि दिल‐ओ‐जिस्म के आहंग से महरूम है तू!

जिस्म और रूह के आहंग से महरूम है तू!
वर्ना शब‐हा-ए- ज़िमिस्ताँ अभी बे-कार नहीं
और न बे-सूद हैं अय्याम-ए बहार!
आह इंसाँ कि है वहमों का परिस्तार अभी
हुस्न बे-चारे को धोका सा दिये जाता है
ज़ौक़-ए तक़दीस पे मजबूर किये जाता है!
टूट जाएंगे किसी रोज़ मज़ामीर के तार
मुस्करा दे कि है ताबिंदा अभी तेरा शबाब
है यही हज़्रत-ए यज़दाँ के तमस्ख़ुर का जवाब!

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