§9ـ शायर-ए दर-मांदा

ज़िंदगी तेरे लिये बिस्तर-ए संजाब‐ओ‐समूर
और मेरे लिये अफ़्रंग की दरयूज़ा-गरी
आफ़ियत-कोशी-ए आबा के तुफ़ैल,
मैं हूँ दर-मांदा‐ओ‐बे-चारा अदीब
ख़स्ता-ए फ़िक्र-ए मआश!
पारा-ए नान-ए जवीं के लिये मुहताज हैं हम
मैं, मिरे दोस्त, मिरे सैंकड़ों अर्बाब-ए वतन
यानी अफ़्रंग के गुलज़ारों के फूल!
तुझे इक शायर-ए दर-मांदा की उम्मीद न थी
मुझ से जिस रोज़ सितारा तिरा वा-बस्ता हुआ
तू समझती थी कि इक रोज़ मिरा ज़ेहन-ए रसा
और मिरे इल्म‐ओ‐हुनर
बहर‐ओ‐बर से तिरी ज़ीनत को गुहर लाएंगे!
मेरे रस्ते में जो हाइल हों मिरे तीरा नसीब
क्यों दुआएँ तिरी बे-कार न जाएँ
तेरे रातों के सुजूद और नियाज़
(उस का बायस मिरा इल्हाद भी है!)

ऐ मिरी शम्-ए शबिस्तान-ए वफ़ा,
भूल जा मेरे लिये
ज़िंदगी ख़्वाब की आसूदा फ़रामोशी है!
तुझे मालूम है मशरिक़ का ख़ुदा कोई नहीं
और अगर है, तो सरा-पर्दा-ए निसयान में है
तू "मसर्रत" है मिरी, तू मिरी "बेदारी" है
मुझे आग़ोश में ले
दो "अना" मिल-के जहाँ सोज़ बनें
और जिस अहद की है तुझ को दुआओं में तलाश
आप ही आप हुवैदा हो जाए!

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§10. इंतिक़ाम arrow_right