§1ـ बादल (सानेट)
छाए हुए हैं चार तरफ़ पारा‐हा-ए- अब्र
आग़ोश में लिए हुए दुनिया-ए आब‐ओ‐रंग
मेरे लिए है उन की गरज में सरोद-ए चंग
पैग़ाम-ए इंबिसात है मुझ को सदा-ए अब्र
उट्ठी है हलके हलके सरों में नवा-ए अब्र
और क़त्र‐हा-ए- आब बजाते हैं जल्तरंग
गहराइयों में रूह की जागी है हर उमंग
दिल में उतर रहे हैं मिरे नग़्मा‐हा-ए- अब्र
मुद््दत से लुट चुके थे तमन्ना के बार‐ओ‐बर्ग
छाया हुआ था रूह पे गोया सुकूत-ए मर्ग
छूड़ा है आज ज़ीस्त को ख़्वाब-ए जमूद ने
उन बादलों से ताज़ा हुई है हयात फिर
मेरे लिये जवान है ये काइनात फिर
शादाब कर दिया है दिल उन के सरोद ने!