§13ـ मंन ‐ओ‐ सलवा
"ख़ुदा-ए बर-तर,
ये दारियूश-ए बुज़ुर्ग की सर-ज़मीं,
ये नौशीरवान-ए आदिल की दाद-गाहें,
तसव्वुफ़‐ओ‐हिक्मत‐ओ‐अदब के निगार-ख़ाने,
ये क्यों सियह-पोस्त दुश्मनों के वुजूद से
आज फिर उबलते हुए से नासूर बन रहे हैं?"
"हम इस के मुज्रिम नहीं हैं, जान-ए अजम नहीं हैं
वो पहला अंग्रेज़
जिस ने हिंदूस्ताँ के साहिल पे
ला-के रक्खी थी जिंस-ए सौदागरी
ये उस का गुनाह है
जो तिरे वतन की
ज़मीन-ए गुल-पोश को
हम अपने सियाह क़दमों से रौंदते हैं!
ये शहर अपना वतन नहीं है,
मगर फ़रंगी की रहज़नी ने
उसी से ना-चार हम को वा-बस्ता कर दिया है,
हम उस की तहज़ीब की बुलंदी की छिपकली बन-के रह गए हैं!
वो राहज़न जो ये सोचता है:
"कि एशिया है कोई अक़ीम‐ओ‐अमीर बीवा
जो अपनी दौलत की बे-पनाही से मुब्तला इक फ़शार में है,
और उस का आग़ोश-ए आर्ज़ू-मंद वा मिरे इंतिज़ार में है,
और एशियाई,
क़दीम ख़्वाजा-सराओं की इक नझ़ाद-ए काहिल,
अजल की राहों पे तेज़-गामी से जा रहे हैं"—
मगर ये हिंदी
गुरिस्ना‐ओ‐पा बरहना हिंदी
जो सालिक-ए राह हैं
मगर राह‐ओ‐रस्म-ए मंज़िल से बे-ख़बर हैं
घरों को वीरान कर-के,
लाखों सुूबतों सह-के
और अपना लहू बहा-कर
अगर कभी सोचते हैं कुछ तो यही,
—कि शायद उंही के बाज़ू
नजात दिलवा सकेंगे मशरिक़ को
ग़ैर के बे-पनाह बिफरे हुए सितम से—
ये सोचते हैं:
—ये हादिसा ही कि जिस ने फेंका है
ला-के उन को तिरे वतन में
वो आंच बन जाए,
जिस से फुंक जाए,
वो जरासीम का अखाड़ा,
जहाँ से हर बार जंग की बू-ए तुंद उठती है
और दुनिया में फैलती है!—
मैं जानता हूँ
मिरे बहुत से रफ़ीक़
अपनी उदास, बे-कार ज़िंदगी के
दिराज़‐ओ‐तारीक फ़ासिलों में
कभी कभी भेड़ियों के मानिंद
आ निकलते हैं, रहगुज़ारों पे
जुस्तजू में किसी के दो "साक़-ए संदलीं" की!
कभी दरीचों की ओट में
ना-तवाँ पतंगों की फड़्फड़ाहट पे
होश से बे-नियाज़ हो-कर वो टूटते हैं;
वो दस्त-ए साइल
जो सामने उन के फैलता है
इस आर्ज़ू में
कि उन की बख़्शिश से
पारा-ए नान, मन‐ओ‐सलवा का रूप भर ले,
वही कभी अपनी नाज़ुकी से
वो रह सुझाता है
जिस की मंज़िल पे शौक़ की तिश्नगी नहीं है!
तू इन मनाज़िर को देखती है!
तू सोचती है:
—ये संगदिल, अपनी बुज़-दिली से
फ़रंगियों की मुहब्बत-ए ना-रवा की ज़ंजीर में बंधे हैं
उंही के दम से ये शहर उबलता हुआ सा नासूर बन रहा है—!
मुहब्बत-ए ना-रवा नहीं है
बस एक ज़ंजीर,
एक ही आहनी कमंद-ए अज़ीम
फैली हुई है,
मशरिक़ के इक किनारे से दूसरे तक,
मिरे वतन से तिरे वतन तक,
बस एक ही अंकबूत का जाल है कि जिस में
हम एशियाई असीर हो-कर तड़प रहे हैं!
मुग़ूल की सुब्ह-ए ख़ूँ-फ़िशाँ से
फ़रंग की शाम-ए जाँ-सिताँ तक!
तड़प रहे हैं
बस एक ही दर्द-ए ला-दवा में,
और अपने आलाम-ए जाँ-गुज़ा के
इस इश्तिराक-ए गिराँ-बहा ने भी
हम को इक दूसरे से अब तक
क़रीब होने नहीं दिया है!