§20ـ रेग-ए दीरूज़
हम मुहब्बत के ख़राबों के मकीं
वक़्त के तूल-ए अलमनाक के पर्वर्दा हैं
एक तारीक अज़ल, नूर-ए अबद से ख़ाली!
हम जो सदयों से चले हैं तो समझते हैं कि साहिल पाया
अपनी तहज़ीब की पा-कोबी का हासिल पाया!
हम मुहब्बत के निहाँ-ख़ानों में बसने-वाले
अपनी पा-माली के अफ़्सानों पे हंसने-वाले
हम समझते हैं निशान-ए सर-ए मंज़िल पाया!
हम मुहब्बत के ख़राबों के मकीं
कुंज-ए माज़ी में हैं बाराँ-ज़दह ताइर की तरह आसूदा,
और कभी फ़ित्ना-ए ना-गाह से डर-कर चौंकें
तो रहें सद््द-ए निगह नींद के भारी पर्दे
हम मुहब्बत के ख़राबों के मकीं!
ऐसे तारीक ख़राबे कि जहाँ
दूर से तेज़ पलट जाएँ ज़िया के आहू
एक, बस एक, सदा गौंजती हो
शब-ए आलाम की "या हू! या हू!"
हम मुहब्बत के ख़राबों के मकीं
रेग-ए दीरूज़ में ख़्वाबों के शजर बूते रहे
साया ना-पैद था, साये की तमन्ना के तले सोते रहे!