§22ـ अफ़्साना-ए शहर
शहर के शहर का अफ़्साना, वो ख़ुश-फ़हम, मगर सादा मुसाफ़िर
कि जिंहें इश्क़ की ललकार के रहज़न ने कहा: "आओ!
दिखलाएँ तुम्हें एक दर-ए बस्ता के असरार का ख़्वाब—"
शहर के शहर का अफ़्साना, वो दिल जिन के बयाबाँ में
किसी क़त्रा-ए गुम-गश्ता के ना-गाह लरज़ने की सदा ने ये कहा:
"आओ दिखलाएँ तुम्हें सुब्ह के होंटों पे तबस्सुम का सराब!"
शहर के शहर का अफ़्साना, वही आर्ज़ू-ए ख़स्ता के लंगड़ाते हुए पैर
कि हैं आज भी अफ़्साने की दुज़दीदा‐ओ‐झ़ूलीदा लकीरों पे रवाँ
उन असीरों की तरह जिन के रग‐ओ‐रेशा की ज़ंजीर की झंकार
भी थम जाए तो कह उट्ठें: "कहाँ?
अब कहाँ जाएंगे हम?
जाएँ अब ताज़ा‐ओ‐ना-दीदा निगाहों के ज़िमिस्ताँ में कहाँ?"
उन असीरों की तरह जिन के लिये वक़्त की बे-सर्फ़ा सलाख़ें
न कभी सर्द न गर्म, और न कभी सख़्त न नर्म
न रिहाई की पज़ीरा, न असीरी ही की शर्म!
शहर के शहर का अफ़्साना, वो रूहें जो सर-ए पुल के सिवा
और कहीं वस्ल की जोया ही नहीं
पुल से जिंहें पार उतरने की तमन्ना ही नहीं
इस का यारा ही नहीं!