§27ـ हसन कूज़ा-गर २
ऐ जहाँ-ज़ाद,
नशात उस शब-ए बे-राह रवी की
मैं कहाँ तक भूलूँ?
ज़ोर-ए मै था, कि मिरे हाथ की लर्ज़िश थी
कि उस रात कोई जाम गिरा टूट गया—
तुझे हैरत न हुई!
कि तिरे घर के दरीचों के कई शीशों पर
उस से पहले की भी दर्ज़ें थीं बहुत—
तुझे हैरत न हुई!
ऐ जहाँ-ज़ाद,
मैं कूज़ों की तरफ़, अपने तग़ारों की तरफ़
अब जो बग़दाद से लौटा हूँ,
तो मैं सोचता हूँ—
सोचता हूँ: तू मिरे सामने आईना रही
सर-ए बाज़ार, दरीचे में, सर-ए बिस्तर-ए संजाब कभी
तू मिरे सामने आईना रही,
जिस में कुछ भी नज़र आया न मुझे
अपनी ही सूरत के सिवा
अपनी तंहाई-ए जांकाह की दहशत के सिवा!
लिख रहा हूँ तुझे ख़त
और वो आईना मिरे हाथ में है
इस में कुछ भी नज़र आता नहीं
अब एक ही सूरत के सिवा!
लिख रहा हूँ तुझे ख़त
और मुझे लिखना भी कहाँ आता है?
लूह-ए आईना पे अश्कों की फुवारों ही से
ख़त क्यों न लिखूँ?
ऐ जहाँ-ज़ाद,
नशात उस शब-ए बे-राह रवी की
मुझे फिर लाएगी?
वक़्त क्या चीज़ है तू जानती है?
वक़्त इक ऐसा पतंगा है
जो दीवारों पे, आईनों पे,
पैमानों पे, शीशों पे,
मिरे जाम‐ओ‐सबू, मेरे तग़ारों पे
सदा रेंगता है
रेंगते वक़्त के मानिंद कभी
लौट-के आएगा हसन कूज़ा-गर-ए सोख़्ता-जाँ भी शायद!
अब जो लौटा हूँ, जहाँ-ज़ाद,
तो मैं सोचता हूँ:
शायद इस झोंपड़े की छत पे ये मकड़ी मिरी महरूमी की—
जिसे तनती चली जाती है, वो जाला तो नहीं हूँ मैं भी?
ये सियह झोंपड़ा मैं जिस में पड़ा सोचता हूँ
मेरे अफ़्लास के रौंदे हुए अज्दाद की
बस एक निशानी है यही
उन के फ़न, उन की मीशत की कहानी है यही
मैं जो लौटा हूँ तो वो सोख़्ता-बख़्त
आ-के मुझे देखती है
देर तक देखती रह जाती है
मेरे इस झोंपड़े में कुछ भी नहीं—
खेल इक सादा मुहब्बत का
शब‐ओ‐रोज़ के इस बड़ते हुए खोखले-पन में जो कभी
खेलते हैं
कभी रो लेते हैं मिल-कर, कभी गा लेते हैं
और मिल-कर कभी हंस लेते हैं
दिल के जीने के बहाने के सिवा और नहीं—
हर्फ़ सर्हद हैं, जहाँ-ज़ाद, मआनी सर्हद
इश्क़ सर्हद है, जवानी सर्हद
अश्क सर्हद हैं, तबस्सुम की रवानी सर्हद
दिल के जीने के बहाने के सिवा और नहीं—
(दर्द-ए मजरूमी की,
तंहाई की सर्हद भी कहीं है कि नहीं?)
मेरे इस झोंपड़े में
कितनी ही ख़ुशबुएँ हैं
जो मिरे गिर्द सदा रेंगती हैं
उसी इक रात की ख़ुशबू की तरह रेंगती हैं—
दर‐ओ‐दीवार से लपटी हुई इस गिर्द की ख़ुशबू भी है
मेरे अफ़्लास की, तंहाई की,
यादों की, तमन्नाओं की ख़ुशबुएँ भी,
फिर भी इस झोंपड़े में कुछ भी नहीं—
ये मिरा झोंपड़ा तारीक है, गंदा है, पुरा गंदा है
हाँ, कभी दूर दरख़्तों से परिंदों की सदा आती है
कभी अंजीरों के, ज़ैतूनों के बाग़ों की महक आती है
तो में जी उठता हूँ
तो मैं कहता हूँ कि लो आज नहा-कर निकला!
वर्ना इस घर में कोई सेज नहीं, इत्र नहीं है,
कोई पंखा भी नहीं,
तुझे जिस इश्क़ की ख़ू है
मुझे उस इश्क़ का यारा भी नहीं!
तू हंसेगी, ऐ जहाँ-ज़ाद, अजब बात
कि जज़बात का हातिम भी मैं
और अश्या के परस्तार भी मैं
और सर्वत जो नहीं उस का तलब-गार भी मैं!
तू जो हंसती रही उस रात तज़ब्ज़ुब पे मिरे
मेरी दो-रंगी पे फिर से हंस दे!
इश्क़ से किस ने मगर पाया है कुछ अपने सिवा?
ऐ जहाँ-ज़ाद,
है हर इश्क़ सवाल ऐसा कि आशिक़ के सिवा
उस का नहीं कोई जवाब
यही काफ़ी है कि बातिन की सदा गूंज उठे!
ऐ जहाँ-ज़ाद
मिरे गोशा-ए बातिन की सदा ही थी
मिरे फ़न की ठिठरती हुई सदयों
के किनारे गूंजी
तेरी आंखों के समंदर का किनारा ही था
सदयों का किनारा निकला
ये समंदर जो मिरी ज़ात का आईना है
ये समंदर जो मिरे कूज़ों के बिगड़े हुए
बनते हुए सीमाओं का आईना है
ये समंदर जो हर इक फ़न का
हर इक फ़न के परस्तार का
आईना है