§29ـ हसन कूज़ा-गर ४

जहाँ-ज़ाद, कैसे हज़ारों बरस बाद
इक शहर-ए मदफ़ून की हर गली में
मिरे जाम‐ओ‐मीना‐ओ‐गुलदाँ के रेज़े मिले हैं
कि जैसे वो इस शहर-ए बरबाद का हाफ़िज़ा हों!
(हसन नाम का इक जवाँ कूज़ा-गर—इक नए शहर में—
अपने कूज़े बनाता हुआ, इश्क़ करता हुआ
अपने माज़ी के तारों में हम से पिरोया गया है
हमीं में (कि जैसे हमीं हों) समोया गया है
कि हम तुम वो बारिश के क़तरे थे जो रात-भर से,
(हज़ारों बरस रेंगती रात-भर)
इक दरीचे के शीशों पे गिरते हुए सांप लहरें
बनाते रहे हैं,
और अब इस जगह वक़्त की सुब्ह होने से पहले
ये हम और ये नौ-जवाँ कूज़ा-गर
एक रोया में फिर से पिरोए गए हैं!)

जहाँ-ज़ाद—
ये कैसा कुहना परस्तों का अंबोह
कूज़ों की लाशों में उत्रा है
देखो!
ये वो लोग हैं जिन की आंखें
कभी जाम‐ओ‐मीना की लिम तक न पहुंचें
यही आज इस रंग‐ओ‐रौग़न की मख़लूक़-ए बे-जाँ
को फिर से उलटने पलटने लगे हैं
ये इन के तले ग़म की चिंगारियाँ पा सकेंगे
जो तारीख़ को खा गई थीं?
वो तूफ़ान, वो आंधियाँ पा सकेंगे
जो हर चीख़ को खा गई थीं?
इंहें क्या ख़बर किस धनक से मिरे रंग आए—
(मिरे और इस नौ-जवाँ कूज़ा-गर के?)
इंहें क्या ख़बर कौन-सी तित्लियों के परों से?
इंहें क्या ख़बर कौन से हुस्न से?
कौन सी ज़ात से, किस ख़द््द‐ओ‐ख़ाल से
मैं ने कूज़ों के चेहरे उतारे?
ये सब लोग अपने असीरों में हैं
ज़माना, जहाँ-ज़ाद, अफ़्सूँ-ज़दह बुर्ज है
और ये लोग उस के असीरों में हैं—
जवाँ कूज़ा-गर हंस रहा है!
ये मासूम वहशी कि अपने ही क़ामत से झ़ूलीदा दामन
हैं जोया किसी अज़्मत-ए ना-रसा के—
इंहें क्या ख़बर कैसा आसीब-ए मुब्रम मिरे ग़ार सीने पे था
जिस ने मुझ से (और इस कूज़ा-गर से) कहा:
"ऐ हसन कूज़ा-गर, जाग
दर्द-ए रिसालत का रोज़-ए बशारत तिरे जाम‐ओ‐मीना
की तिश्ना-लबी तक पहुंचने लगा है!"
यही वो निदा, जिस के पीछे हसन नाम का
ये जवाँ कूज़ा-गर भी
पिया पै रवाँ है ज़माँ से ज़माँ तक
ख़िज़ाँ से ख़िज़ाँ तक!

जहाँ-ज़ाद मैं ने—हसन कूज़ा-गर ने—
बयाबाँ बयाबाँ ये दर्द-ए रिसालत सहा है
हज़ारों बरस बाद ये लोग
रेज़ों के चुनते हुए
जान सकते हैं कैसे
कि मेरे गिल‐ओ‐ख़ाक के रंग‐ओ‐रौग़न
तिरे नाज़ुक आज़ा के रंगों से मिल-कर
अबद की सदा बन गए थे?
मैं अपने मसामों से, हर पोर से,
तेरी बांहों की पहनाइयाँ
जज़्ब करता रहा था
कि हर आने-वाले की आंखों के माबद पे जा-कर चिड़ाऊँ—
ये रेज़ों की तहज़ीब पा लें तो पा लें
हसन कूज़ा-गर को कहाँ ला सकेंगे?
ये उस के पसीने के क़तरे कहाँ गिन सकेंगे?
ये फ़न की तजल्ली का साया कहाँ पा सकेंगे?
जो बड़ता गया है ज़माँ से ज़माँ तक
ख़िज़ाँ से ख़िज़ाँ तक
जो हर नौजवाँ कूज़ा-गर की नई ज़ात में
और बड़ता चला जा रहा है!
वो फ़न की तजल्ली का साया कि जिस की बदौलत
हमह इश्क़ हैं हम
हमह कूज़ा-गर हम
हमह-तन ख़बर हम, हमह बे-ख़बर हम
ख़ुदा की तरह अपने फ़न के ख़ुदा सरबसर हम!
(आर्ज़ुएँ कभी पा-याब तो सर-याब कभी,
तैरने लगते हैं बे-होशी की आंखों में कई चेहरे
जो देखे भी न हों
कभी देखे हों किसी ने तो सुराग़ उन का
कहाँ से पाए?
किस से ईफ़ा हुए अंदोह के आदाब कभी
आर्ज़ुएँ कभी पा-याब तो सर-याब कभी!)

ये कूज़ों के लाशे, जो इन के लिये हैं
किसी दास्तान-ए फ़ना के वग़ैरा वग़ैरा—
हमारी अज़ाँ हैं, हमारी तलब का निशाँ हैं
ये अपने सुकूत-ए अजल में भी ये कह रहे हैं:
"वो आंखें हमीं हैं जो अंदर खुली हैं
तुम्हें देखती हैं, हर इक दर्द को भांपती हैं
हर इक हुस्न के राज़ को जानती हैं
कि हम एक सुंसान हुजरे की उस रात की आर्ज़ू हैं
जहाँ एक चेहरे, दरख़्तों की शाख़ों के मानिंद
इक और चेहरा पे झुक-कर, हर इंसाँ के सीने में
इक बर्ग-ए गुल रख गया था
उसी शब का दुज़दीदा बोसा हमीं हैं!"

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