§30ـ मेरे भी हैं कुछ ख़्वाब
ऐ इश्क़-ए अज़ल-गीर‐ओ‐अबद-ताब, मेरे भी हैं कुछ ख़्वाब
मेरे भी हैं कुछ ख़्वाब!
इस दौर से, इस दौर के सूखे हुए दरयाओं से,
फैले हुए सहराओं से, और शहरों के वीरानों से
वीराना-गरों से मैं हज़ीं और उदास!
ऐ इश्क़-ए अज़ल-गीर‐ओ‐अबद-ताब
मेरे भी हैं कुछ ख़्वाब!
ऐ इश्क़-ए अज़ल-गीर‐ओ‐अबद-ताब, मेरे भी हैं कुछ ख़्वाब
मेरे भी हैं कुछ ख़्वाब
वो ख़्वाब कि असरार नहीं जिन के हमें आज भी मालूम
वो ख़्वाब जो आसूदगी-ए मर्तबा‐ओ‐जाह से,
आलूदगी-ए गिर्द-ए सर-ए राह से मासूम!
जो ज़ीस्त की बे-हूदा कशाकश से भी होते नहीं मादूम
ख़ुद ज़ीस्त का मफ़हूम!
ऐ इश्क़-ए अज़ल-गीर‐ओ‐अबद-ताब,
ऐ काहिन-ए दानिशवर‐ओ‐आली-गुहर‐ओ‐पीर
तू ने ही बताई हमें हर ख़्वाब की ताबीर
तू ने ही सुझाई ग़म-ए दिलगीर की तसख़ीर
टूटी तिरे हाथों ही से हर ख़ौफ़ की ज़ंजीर
ऐ इश्क़-ए अज़ल-गीर‐ओ‐अबद-ताब, मेरे भी हैं कुछ ख़्वाब
मेरे भी हैं कुछ ख़्वाब!
ऐ इश्क़-ए अज़ल-गीर‐ओ‐अबद-ताब,
कुछ ख़्वाब कि मदफ़ून हैं इज्दाद के ख़ुद-साख़्ता अस्मार के नीचे
उज्ड़े हुए मज़्हब के बना-रेख़्ता औहाम की दीवार के नीचे
शीराज़ के मजज़ूब-ए तुनक-जाम के अफ़्कार के नीचे
तहज़ीब-ए निगूंसार के आलाम के अंबार के नीचे!
कुछ ख़्वाब हैं आज़ाद मगर बड़ते हुए नूर से मरूब
नै हौस्ला-ए ख़ुब है, नै हिम्मत-ए ना-ख़ुब
गो ज़ात से बड़-कर नहीं कुछ भी उंहें महबूब
हैं आप ही उस ज़ात के जारूब
—ज़ात से महजूब
कुछ ख़्वाब हैं जो गिर्दिश-ए आलात से जोयंदा-ए तमकीन
है जिन के लिये बंदगी-ए क़ाज़ी-ए हाजात से इस दहर की तज़ईन
कुछ जिस के लिये ग़म की मसावात से इंसान की तमीन
कुछ ख़्वाब कि जिन का हवस-ए जौर है आईन
दुनिया है न दीन!
कुछ ख़्वाब हैं पर्वर्दा-ए अंवार, मगर उन की सहर गुम
जिस आग से उठता है मुहब्बत का ख़मीर, उस के शरर गुम
है कुल की ख़बर उन को मगर जुज़ की ख़बर गुम
ये ख़्वाब हैं वो जिन के लिये मर्तबा-ए दीदा-ए तर हेच
दिल हेच है, सर इतने बराबर हैं कि सर हेच
—अर्ज़-ए हुनर हेच!
ऐ इश्क़-ए अज़ल-गीर‐ओ‐अबद-ताब
ये ख़्वाब मिरे ख़्वाब नहीं हैं कि मिरे ख़्वाब हैं कुछ और
कुछ और मिरे ख़्वाब हैं, कुछ और मिरा दौर
ख़्वाबों के नए दौर में नै मोर‐ओ‐मलख़ नै असद‐ओ‐सौर
नै लज़्ज़त-ए तसलीम किसी में न किसी को हवस-ए जौर
—सब के नए तौर!
ऐ इश्क़-ए अज़ल-गीर‐ओ‐अबद-ताब,
मेरे भी हैं कुछ ख़्वाब!
हर ख़्वाब की सौगंद!
हर चंद कि वो ख़्वाब हैं सर-बस्ता‐ओ‐रू-बंद
सीने में छुपाए हुए गोयाई-ए दोशीज़ा-ए लब-ख़ंद
हर ख़्वाब में अज्साम से अफ़्कार का, मफ़हूम से गुफ़तार का पैवंद
उशशाक़ के लब‐हा-ए- अज़ल-तिश्ना की पैवस्तगी-ए शौक़ के मानिंद
(ऐ लम्हा-ए ख़ुर्संद!)
ऐ इश्क़-ए अज़ल-गीर‐ओ‐अबद-ताब, मेरे भी हैं कुछ ख़्वाब
वो ख़्वाब हैं आज़ादी-ए कामिल के नए ख़्वाब
हर सी-ए जिगर-दोज़ के हासिल के नए ख़्वाब
आदम की विलादत के नए जश्न पे लहराते जलाजिल के नए ख़्वाब
इस ख़ाक की सत्वत की मनाज़िल के नए ख़्वाब
या सीना-ए गीती में नए दिल के नए ख़्वाब
ऐ इश्क़-ए अज़ल-गीर‐ओ‐अबद-ताब
मेरे भी हैं कुछ ख़्वाब
मेरे भी हैं कुछ ख़्वाब!