§4ـ वादी-ए पिंहाँ
वक़्त के दरया में उट्ठी थी अभी पहली ही लहर
चंद इंसानों ने ली इक वादी-ए पिंहाँ की राह
मिल गई उन को वहाँ
आग़ोश-ए राहत में पनाह
कर लिया तामीर इक मौसीक़ी‐ओ‐इशरत का शहर,
मशरिक़‐ओ‐मग़्रिब के पार
ज़िंदगी और मौत की फ़रसूदा शह-राहों से दूर
जिस जगह से आस्माँ का क़ाफ़िला लेता है नूर
जिस जगह हर सुब्ह को मिलता है ईमा-ए ज़हूर
और बुने जाते हैं रातों के लिये ख़्वाबों के जाल
सीखती है जिस जगह पर्दाज़ हूर
और फ़रिशतों को जहाँ मिलता है आहंग-ए सुरूर
ग़म नसीब अह्रीमनों को गिर्या‐ओ‐आह‐ओ‐फ़िग़ाँ!
काश बतला दे कोई
मुझ को भी इस वादी-ए पिंहाँ की राह
मुझ को अब तक जुस्तजू है
ज़िंदगी के ताज़ा जोलांगाह की
कैसी बेज़ारी सी है
ज़िंदगी के कुहना आहंग-ए मुसल्सल से मुझे
सर-ज़मीन-ए ज़ीस्त की अफ़्सुर्दा महफ़िल से मुझे
देख ले इक बार काश
उस जहाँ का मंज़िर-ए रंगीं निगाह
जिस जगह है क़हक़हों का इक दरख़्शंदा वुफ़ूर
जिस जगह से आस्माँ का क़ाफ़िला लेता है नूर
जिस की रिफ़्अत देख-कर ख़ुद हिम्मत-ए यज़दाँ है चूर
जिस जगह है वक़्त इक ताज़ा सुरूर
ज़िंदगी का पैरहन है तार तार!
जिस जगह अह्रीमनों का भी नहीं कुछ इख़्तियार
मशरिक़‐ओ‐मग़्रिब के पार!