§5ـ गुनाह और मुहब्बत

गुनाह:

गुनाह के तुंद‐ओ‐तेज़ शोलों से रूह मेरी भड़क रही थी
हवस की सुंसान वादियों में मिरी जवानी भटक रही थी
मिरी जवानी के दिन गुज़रते थे वहशत-आलूद इशरतों में
मिरी जवानी के मै-कदों में गुनाह की मै छलक रही थी
मिरे हरीम-ए गुनाह में इश्क़ देवता का गुज़र नहीं था
मिरे फ़रेब-ए वफ़ा के सहरा में हूर-ए इस्मत भटक रही थी
मुझे ख़स-ए ना-तवाँ के मानिंद ज़ौक़-ए इसयाँ बहा रहा था
गुनाह की मौज-ए फ़ित्ना सामाँ उठा उठा-कर पटक रही थी
शबाब के अव्वलीं दिनों में तबाह‐ओ‐अफ़्सुर्दा हो चुके थे
मिरे गुलिस्ताँ के फूल, जिन से फ़ज़ा-ए तिफ़ली महक रही थी
ग़रज़ जवानी में अह्रिमन के तरब का सामान बन गया मैं
गुनह की आलाइशों में लुथड़ा हुआ इक इंसान बन गया मैं

मुहब्बत:

और अब कि तेरी मुहब्बत-ए सर-मदी का बादा-गुसार हूँ मैं
हवस-परस्ती की लज़्ज़त-ए बे-सबात से शर्म-सार हूँ मैं
मिरी बहीमाना ख़्वाहिशों ने फ़रार की राह ली है दिल से
और उन के बदले इक आर्ज़ू-ए सलीम से हम-किनार हूँ मैं
दलील-ए राह-ए वफ़ा बनी हैं ज़िया-ए उल्फ़त की पाक किरनें
फिर अपने "फ़िर्दौस-ए गुमशुदा" की तलाश में रह सिपार हूँ मैं
हुआ हूँ बे-दार कांप-कर इक मुहीब ख़्वाबों के सिल्सिले से
और अब नमूद-ए सहर की ख़ातिर सितम-कश-ए इंतिज़ार हूँ मैं
बहार-ए तक़दीस-ए जाविदाँ की मुझे फिर इक बार आर्ज़ू है
फिर एक पाकीज़ा ज़िंदगी के लिये बहुत बे-क़रार हूँ मैं
मुझे मुहब्बत ने मासियत के जहन्नमों से बचा लिया है
मुझे जवानी की तीरा‐ओ‐तार पस्तियों से उठा लिया है

arrow_left §4. वादी-ए पिंहाँ

§6. मुकाफ़ात arrow_right