§8ـ इत्तिफ़ाक़ात
आज, इस साअत-ए दुज़दीदा‐ओ‐ना-याब में भी,
जिस्म है ख़्वाब से लज़्ज़त-कश-ए ख़मयाज़ा तिरा
तेरे मिझ़गाँ के तले नींद की शब्नम का नज़ूल
जिस से धुल जाने को है ग़ाज़ा तिरा
ज़िंदगी तेरे लिये रस भरे ख़्वाबों का हुजूम
ज़िंदगी मेरे लिये काविश-ए बेदारी है;
इत्तिफ़ाक़ात को देख
इस हसीं रात को देख
तोड़ दे वहम के जाल
छोड़ दे अपने शबिस्तानों को जाने का ख़याल,
ख़ौफ़-ए मौहूम तिरी रूह पे क्या तारी है!
इतना बे-सर्फ़ा नहीं तेरा जमाल
इस ज़िमिस्ताँ की जुनूँ-ख़ेज़ हसीं रात को देख!
आज, इस साअत-ए दुज़दीदा‐ओ‐ना-याब में भी
तिश्नगी रूह की आसूदा न हो
जब तिरा जिस्म जवानी में है नैसान-ए बहार
रंग‐ओ‐नकहत का फ़शार!
फूल हैं, घास है, अश्जार हैं, दीवारें हैं
और कुछ साए कि हैं मुख़्तसर‐ओ‐तीरा‐ओ‐तार,
तुझ को क्या इस से ग़रज़ है कि ख़ुदा है कि नहीं?
देख पततों में लरज़ती हुई किरनों का नफ़ूज़
सर्सराती हुई बड़ती है रगों में जैसे
अव्वलीं बादा गुसारी में नई तुंद शराब,
तुझ को क्या इस से ग़रज़ है कि ख़ुदा है कि नहीं?
कहकशाँ अपनी तमन्नाओं का है राह-गुज़ार
काश उस राह पे मिल-कर कभी परवाज़ करें
इक नई ज़ीस्त का दर-बाज़ करें!
आस्माँ दूर है लेकिन ये ज़मीं है नज़दीक
आ इसी ख़ाक को हम जल्वा-गा-ए राज़ करें!
रूहें मिल सकती नहीं हैं तो ये लब ही मिल जाएँ,
आ इसी लज़्ज़त-ए जावेद का आग़ाज़ करें!
सुब्ह जब बाग़ में रस लेने को ज़ंबूर आए
उस के बूसों से हों मद-होश समन और गुलाब
शबनमी घास पे दो पैकर-ए यख़-बस्ता मिलें,
और ख़ुदा हो तो पशेमाँ हो जाए!