§10ـ इंतिक़ाम

उस का चेहरा, उस के ख़द््द‐ओ‐ख़ाल याद आते नहीं
इक शबिस्ताँ याद है
इक बरहना जिस्म आतिशदाँ के पास
फ़र्श पर क़ालीन, क़ालीनों पे सेज
धात और पत्थर के बुत
गोशा-ए दीवार में हंसते हुए!
और आतिशदाँ में अंगारों का शोर
उन बुतों की बे-हिसी पर ख़श्म्गीं
उज्ली उज्ली ऊंची दीवारों पे अक्स
उन फ़रंगी हाकिमों की यादगार
जिन की तलवारों ने रक्खा था यहाँ
संग-ए बुंयाद-ए फ़रंग!

उस का चेहरा उस के ख़द््द‐ओ‐ख़ाल याद आते नहीं
इक बरहना जिस्म अब तक याद है
अज्नबी औरत का जिस्म,
मेरे "होंटों" ने लिया था रात भर
जिस से अर्बाब-ए वतन की बे-बसी का इंतिक़ाम
वो बरहना जिस्म अब तक याद है!

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